बिरसा मुंडा : भेड़ चराने वाले बालक से लेकर धरती आबा बनने तक की कहानी।

Birsa Munda: The story from a sheep herder to becoming Dharti Aaba.
Birsa Munda: The story from a sheep herder to becoming Dharti Aaba.

बिरसा मुंडा

15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस आने में अब सिर्फ 5 दिन ही बचे हैं। ऐसे में देशभर में तमाम लोग इस आजादी की लड़ाई में अपना बलिदान देने वाले वीरों को याद करते हैं। याद करें भी क्यों ना? जहां आजकल कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए अपने परिवार तक को भुला देते हैं, तो वहीं कोई अपने मुल्क को आजाद करने के लिए अपनी कुर्बानी तक दे दिए। इससे बड़ा त्याग क्या हो सकता है?
लेकिन अफसोस की बात यह है कि उन वीर सपूतों में भी सभी को समान जगह नहीं मिल सका। आपसे जब भी कोई स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पूछते होंगे तो आपके जहन में किन लोगों का नाम आता है? अधिकतर लोगों के मन में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चंद्रशेखर आजाद, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक आदि का नाम आता है। क्योंकि हम लोगों को बस इन्हीं के बारे में पढ़ाया गया है। पर ऐसे कई शूरवीर हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों से दफन कर दिया, जबकि आजादी की लड़ाई में उनका भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने भी अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ते हुए अपनी शहादत दे दी। लेकिन उन्हें वह जगह सिर्फ इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि वह निचली जाति से आते थे।
आपको यह पढ़कर बहुत हैरानी हुई होगी, लेकिन यह हमारे देश की कड़वी सच्चाई है। इस आर्टिकल में एक ऐसे ही क्रांतिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे इतिहास से लगभग गायब कर दिया गया था। हम बात कर रहे हैं महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के बारे में।

बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को चालकद ग्राम में हुआ था, जो वर्तमान में झारखंड राज्य में पड़ता है। बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दी। उन्होंने अंग्रेजों से लड़ना तब से ही शुरू कर दिया जब वह 25 साल के भी नहीं हुए थे। बिरसा मुंडा सामान्य कद काठी के व्यक्ति थे। उनका कद केवल 5 फीट 4 इंच था, लेकिन उनकी आंखों में बुद्धिमता की चमक थी। शुरू में वो बोहोंडा के जंगलों में भेड़ों को चढ़ाया करते थे। उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था। बिरसा मुंडा की आरंभिक पढ़ाई एक जर्मन मिशन स्कूल में हुआ था। उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया। लेकिन कुछ दिन बाद ही जब उन्हें एहसास हुआ कि अंग्रेज लोग आदिवासियों का धर्म बदलवाने की मुहिम में लगे हुए हैं तो उन्होंने ईसाई धर्म को त्याग दिया।

बिरसा ने नया धर्म का सिद्धांत दिया

बिरसा मुंडा के बारे में एक कहानी काफी प्रचलित है कि – एक ईसाई अध्यापक ने एक बार कक्षा में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। बिरसा मुंडा ने इसका कड़ा विरोध किया, क्योंकि बिरसा मुंडा खुद मुंडा जनजाति से संबंध रखते थे। बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया। बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म को त्याग कर अपना नया धर्म विसरैत शुरू किया। जल्द ही मुंडा और उरांव जनजाति के लोगों ने उनके धर्म को मानने लगे। बिरसा मुंडा विसरैत धर्म के बहाने ही सभी जनजातियों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करने लगे।

बिरसा मुंडा का अंग्रेजों के खिलाफ शुरुआती संघर्ष

बिरसा मुंडा ने संघर्ष की शुरुआत चाईबासा से किया, जहां उन्होंने 1886 से 1890 तक 4 साल बिताए। इन चार सालों में बिरसा मुंडा ने वहां के आसपास के जनजाति लोगों को एकजुट किया और वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ एक आदिवासी आंदोलन की शुरुआत कर दी। इस दौरान उन्होंने एक नारा दिया – “अबूया राज एते जाना! महारानी राज टुडू जाना!!” जिसका अर्थ होता है कि अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज खत्म हो गया है।
19वीं सदी के अंत में अंग्रेजों ने भूमि नीति के तहत परंपरागत आदिवासियों की भूमि व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था। साहूकारों ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया और आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया। उस समय बिरसा मुंडा ने एक जनसभा में मुंडा राज्य की स्थापना के लिए जोशीले भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषण में कहा – डरो मत! मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है, सरकार का राज समाप्त हो चुका है।

उनकी बंदूके लकड़ी में बदल जाएगी। जो लोग मेरे राज्य को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो। बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को आदेश दिया कि वह सरकार को कोई टैक्स न दे। उन्होंने पुलिस स्टेशन और जमींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया। जगह-जगह से ब्रिटिश झंडे को उतार कर उसके जगह सफेद झंडा लगाए जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था।

जब बिरसा को पहली बार गिरफ्तार किया

बिरसा मुंडा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ्तार किया गया, जिसमें उनको 2 साल की सजा हुई। नवंबर 1897 में जब बिरसा मुंडा को जेल में रहे पूरे 2 साल 12 दिन हो गए तब उनको रिहा किया गया। जब उसे रिहा किया जा रहा था तो उनके साथ उनके दो और साथियों डोंका मुंडा और मझिया मुंडा को भी छोड़ गया। जब यह तीनों जेल के मुख्य गेट की तरफ गए तो जेल के क्लर्क ने रिहाई का कागजात के साथ कपड़ों का एक छोटा सा बंडल भी दिया। बिरसा ने अपने पुराने सामान पर एक नजर डाली तो उसको उनका अपना चप्पल और पगड़ी दिखाई नहीं दिया।

इसके विषय में जब बिरसा के साथी डोंका मुंडा ने पूछा कि बिरसा की चप्पल और पगड़ी कहां है? तो जेलर ने जवाब दिया कि– कमिश्नर का आदेश है कि हम आपकी चप्पल और पगड़ी आपको ना दें, क्योंकि सिर्फ ब्राह्मण, जमींदारों और साहूकारों को ही चप्पल और पगड़ी पहनने की इजाजत है। डोंगा इस पर कुछ कहना चाह रहे थे पर बिरसा मुंडा ने अपने हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने को कहा। जब बिरसा और उनके साथी जेल के गेट से बाहर निकले तो करीब 25 लोग उनके स्वागत में खड़े थे। उन्होंने बिरसा को देखते ही नारा लगाया – “बिरसा भगवान की जय!”

इस पर बिरसा मुंडा ने अपने समर्थकों को समझाया और कहा कि – आप लोगों को मुझे भगवान नहीं कहना चाहिए। इस लड़ाई में हम सब बराबर हैं। तभी बिरसा मुंडा के एक साथी भरमी ने कहा कि – हमने आपको एक दूसरा नाम भी दिया है “धरती आबा”। तब से ही बिरसा मुंडा को धरती आबा कहकर संबोधित किया जाने लगा।

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