मायावती ने किसे कहा बरसाती मेंढक
उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर सियासी बयानबाजी तेज हो गई है. बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती के एक हालिया ट्वीट, जिसमें ‘बरसाती मेंढकों’ का जिक्र था। हालांकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया है लेकिन तमाम मीडिया संस्थान और तथाकथित राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बहन जी ने बरसाती मेढक भीम आर्मी के संस्थापक व नगीना लोकसभा के सांसद चंद्रशेखर आजाद के बारे में ही लिखा है। बस यहीं से ये विवाद शुरू हो गया।
आज हम एक ऐसे विषय पर बात करने जा रहे हैं, जो न केवल दलित राजनीति की वर्तमान दिशा को दर्शाता है, बल्कि उसके भीतर चल रही अंतर्कलह और नेतृत्व संघर्ष को भी उजागर करता है। मेरा विषय है – चंद्रशेखर आज़ाद और मायावती के बीच का विवाद।
यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दो प्रमुख दलित नेताओं के बीच का टकराव है, जिनका उद्देश्य एक ही है – दलित समाज का उत्थान – लेकिन रास्ते और रणनीतियाँ भिन्न हैं। इस वीडियो के माध्यम से हम इस पूरे विवाद को ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक संदर्भों में रखकर समझने की कोशिश करेंगे।
हालांकि चंद्रशेखर ने स्पष्ट किया कि यह ट्वीट उनके लिए नहीं है. क्योंकि जब किसी का नाम ही नहीं लिखा है तो हम कैसे कह सकते हैं कि उन्होंने ये बात मुझे ही कहा है।
मायावती ने क्या कहा
सबसे पहले हमलोग यह देख लेते हैं कि आख़िर बहन मायावती जी ने क्या ट्वीट किया जिस पर इतना हंगामा मचा हुआ है।
दरअसल मायावती ने एक के बाद एक ट्वीट किए, जिसमें उन्होंने लिखा कि – देश में बीएसपी बहुजन हित की एकमात्र अम्बेडकरवादी पार्टी है तथा पार्टी हित में लोगों पर कार्रवाई करने व पश्चताप करने पर उन्हें वापस लेने की परंपरा है. इसी क्रम में श्री आकाश आनन्द के उतार-चढ़ाव व उन्हें मुख्य नेशनल कोआर्डिनेटर बनाने से बहुत से लोगों में बेचैनी स्वाभाविक.
उन्होंने आगे लिखा, पार्टी को उम्मीद है कि अब श्री आकाश आनन्द बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर एवं मान्यवर श्री कांशीराम जी के आत्म-सम्मान के कारवां को आगे बढ़ाने व उनके सपनों को साकार करने की जिम्मेदारी पूरी तमन्ना व जी-जान से निभाएंगे अर्थात पार्टी को अवसरवादी व स्वार्थी लोगों की कतई जरूरत नहीं.
मायावती ने आगे लिखा, वैसे भी कांग्रेस, भाजपा व सपा आदि पार्टियों के सहारे व इशारे पर चलकर बहुजनों की एकता व बीएसपी को कमजोर करने वाले बरसाती मेंढकों की तरह के संगठन व दलों के नेता चाहे निजी स्वार्थ में विधायक, सांसद व मंत्री क्यों ना बन जाएं इनसे समाज का कुछ भला होने वाला नहीं. लोग सावधान रहें.
बस यही बरसाती मेढक वाली बात मीडिया ने लपक दिया और अनुमान लगाने लगा कि बहन जी ने ये बात चन्द्रशेखर आजाद के बारे में कही हैं।
चंद्रशेखर आजाद ने क्या कहा
वहीं मायावती के ट्वीट को लेकर चंद्रशेखर आजाद ने स्पष्ट किया कि वह ट्वीट उनके लिए नहीं था. उन्होंने कहा कि बहनजी उनकी सम्माननीय नेता हैं और वह कभी भी बहुजन समाज के युवाओं को ‘बरसाती मेंढक’ नहीं कह सकतीं. चंद्रशेखर ने बीजेपी से नजदीकी और सुरक्षा के सवाल पर कहा कि उन पर हमला हुआ था, इसलिए सुरक्षा दी गई.
मीडिया से बातचीत में चंद्रशेखर ने कहा कि मायावती का ट्वीट मेरे लिए होता तो नाम लेतीं’। ‘यह ट्वीट अगर मेरे लिए होता तो बहनजी मेरा नाम लिखतीं. वह मेरी सम्माननीय नेता हैं. मैं आजीवन उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करता हूं.’
चंद्रशेखर ने कहा कि मैं बहन मायावती को किसी प्रकार की चुनौती नहीं दे रहा हूँ. ‘वह सत्ता में नहीं हैं और मैं सिर्फ अपने समाज को जगाने निकला हूं ताकि 15 सालों से जो सत्ता का सूखा पड़ा है, वह खत्म हो सके.’ उन्होंने साफ किया कि ‘हम पंचायत चुनाव को सेमीफाइनल की तरह देख रहे हैं और पूरी ताकत से लड़ेंगे.’
चंद्रशेखर ने दोहराया कि आजाद समाज पार्टी एक वैचारिक आंदोलन है और इसका किसी से समझौता नहीं होगा. वक्फ और अन्य मुद्दों पर हमारा वही स्टैंड है. हम दलितों के साथ-साथ सामान्य वर्ग के गरीबों की भी आवाज उठाते रहेंगे.’
सपा के सवाल पर चंद्रशेखर ने क्या कहा
जब मीडिया ने समाजवादी पर के प्रमुख अखिलेश यादव से बढ़ती नजदीकियां के ऊपर सवाल किया तो चंद्रशेखर ने कहा कि – अखिलेश जी से ‘संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं, लेकिन बहुत बुरे भी नहीं हैं. संसद में सामान्य शिष्टाचार होता है।
मिडिया के अंतिम सवाल पर चंद्रशेखर ने कहा, ‘हम उत्तर प्रदेश में 85% कमजोर वर्ग को जोड़ने के लिए अभियान चला रहे हैं और पंचायत चुनाव में पूरी ताकत झोंकेंगे. हमारा मिशन कभी झुकेगा नहीं.’
अब हमलोग थोड़ा बहन मायावती और चंद्रशेखर आजाद के राजनीति पृष्ठभूमि पर भी नज़र डालते हैं। आपको बता दें कि आज के समय में मायावती बहुजन समाज पार्टी के सुप्रीमों है तो वहीं चंद्रशेखर आजाद आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चंद्रशेखर आजाद का एक पहचान और है , वो भीम आर्मी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं और अभी वर्तमान में नगीना लोकसभा सीट से सांसद हैं।
बसपा की राजनीति
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना मान्यवर कांशीराम जी ने की थी, और मायावती जी उनके विचारों की उत्तराधिकारी बनीं। दशकों तक मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों के लिए एक मज़बूत मंच बनाया। उन्होंने चार बार मुख्यमंत्री बनकर यह साबित किया कि दलित अब केवल वोट बैंक नहीं, बल्कि सत्ता के केंद्र में भी हो सकते हैं।
दूसरी ओर, चंद्रशेखर आज़ाद सहारनपुर के एक सामान्य दलित परिवार से निकलकर, पहले भीम आर्मी के संस्थापक के रूप में और फिर आज़ाद समाज पार्टी के नेता के रूप में उभरे। उन्होंने दलित युवाओं को सड़कों पर संघर्ष करना सिखाया, संविधान को हाथ में लेकर अन्याय के खिलाफ मोर्चा खोला। उनका तरीका आंदोलनकारी है, जबकि मायावती का तरीका व्यवस्थागत है।
भले ही ट्वीटर वार आजकल में हुआ है लेकिन इस विवाद की शुरुआत तब मानी जाती है जब 2019 में चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा की। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी घोषणा को वापस ले लिया लेकिन मायावती ने इसे भाजपा की साजिश कहा और आरोप लगाया कि चंद्रशेखर को बसपा के वोट काटने के लिए उभारा गया है।
उन्होंने यह भी कहा कि कुछ छोटे दल और नेता दलित राजनीति को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, जिनका असली मकसद दलित वोटों का बिखराव कर भाजपा को लाभ पहुंचाना है। मायावती ने नाम नहीं लिया, लेकिन उस समय भी कई लोगों का मानना था कि ये इशारा चंद्रशेखर की ओर था।
चंद्रशेखर ने सिरे से खारिज किया
चंद्रशेखर आज़ाद ने इस आरोप को सिरे से खारिज किया। उन्होंने मायावती को ‘मां’ जैसा बताया और कहा कि वह उनका सम्मान करते हैं, लेकिन दलित राजनीति अब ठहराव का शिकार है और उसे नए नेतृत्व की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि दलित युवाओं की समस्याएँ – शिक्षा, रोजगार, आरक्षण, अत्याचार – इन पर बसपा की आवाज कमजोर हो गई है।
चंद्रशेखर ने यह भी आरोप लगाया कि मायावती अब सर्वसमाज की राजनीति की ओर बढ़ चुकी हैं और दलित हितों की प्राथमिकता कम हो गई है। हालांकि दोनों नेता भारत के दलित राजनीति को प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन फिर भी इन दोनों के विचारधारा और कार्यशैली में अंतर देखने को मिलता है।
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जहां मायावती ने दलित राजनीति को संस्थागत रूप दिया, उसे चुनावी राजनीति में बदल दिया। उन्होंने प्रशासनिक शक्ति का उपयोग कर दलितों के लिए योजनाएं बनाईं। वहीं, चंद्रशेखर एक एक्टिविस्ट नेता हैं। वह सड़क पर संघर्ष करते हैं, गिरफ्तारी देते हैं, आंदोलन करते हैं, संविधान की प्रस्तावना पढ़ते हुए अत्याचार के विरुद्ध नारे लगाते हैं। उनका समर्थन युवा वर्ग में अधिक है।
दलित समाज की प्रतिक्रिया
दलित समाज इस संघर्ष को मिश्रित दृष्टि से देखता है। एक वर्ग मायावती को दलितों की पहली प्रधानमंत्री बनने की संभावना के रूप में देखता है, जबकि दूसरा वर्ग मानता है कि चंद्रशेखर जैसे युवा नेता ही नए युग के प्रतिनिधि हैं।
मगर, इस मतभेद का बड़ा नुकसान यह होता है कि दलित वोट बैंक बिखरता है और उसका लाभ विरोधी दलों को होता है। यह स्थिति भाजपा और अन्य सवर्ण वर्चस्ववादी दलों के लिए अनुकूल होती है।
मिडिया की भूमिका
जहां तक मीडिया की भूमिका का सवाल है तो मेन स्ट्रीम मीडिया हर वक्त इस ताक में बैठा रहता है कि कब कोई ऐसा बात हो जिससे दलित वोट बिखर जाए ताकि उनके अंदर एकजुटता नहीं आए। इसलिए मीडिया ने भी इस संघर्ष को सनसनी के रूप में परोसा। कुछ मीडिया संस्थानों ने इसे ‘दलित राजनीति का टकराव’ कहकर प्रस्तुत किया, जबकि कुछ ने इसे भाजपा द्वारा प्रायोजित विभाजन कहा। सोशल मीडिया पर चंद्रशेखर समर्थकों और बसपा समर्थकों के बीच जमकर बहसें हुईं, जो कभी-कभी व्यक्तिगत हमलों तक पहुंच गईं।
अब प्रश्न उठता है कि इस स्थिति का समाधान क्या है? क्या मायावती और चंद्रशेखर साथ आ सकते हैं? क्या दलित राजनीति फिर से संगठित हो सकती है? इसका उत्तर जटिल है। दोनों नेताओं की विचारधारा, कार्यशैली और महत्वाकांक्षा अलग-अलग हैं। लेकिन अगर वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम (Common Minimum Programme) पर सहमत हो जाएं – जैसे कि अत्याचार निवारण, शिक्षा और रोजगार पर नीति निर्माण, आरक्षण की रक्षा – तो सहयोग संभव है।
सन्देश
दोनों नेता बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के अनुयायी हैं। बाबा साहब का स्पष्ट निर्देश था – “शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।” यदि यही आदर्श दोनों अपनाएं, तो संघर्ष को सहयोग में बदला जा सकता है। हम इस संघर्ष को केवल दो नेताओं की लड़ाई के रूप में न देखें। यह संघर्ष दरअसल दलित राजनीति की दिशा तय करने वाला संघर्ष है। यह पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच संवाद और सामंजस्य की ज़रूरत को दर्शाता है।
यदि मायावती और चंद्रशेखर दोनों अपने-अपने अहं को त्यागकर, समाज के व्यापक हित में सोचें, तो एक नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो सकता है, जो न केवल दलितों को, बल्कि पूरे वंचित समाज को नेतृत्व दे सकती है।
हम सबका कर्तव्य है कि हम इस संघर्ष को विभाजन नहीं, समन्वय की दृष्टि से देखें और अपने नेताओं को सहयोग की राह पर प्रेरित करें। यही बाबा साहब का सपना था, यही भारत का संविधान चाहता है।