सवर्ण आयोग की घोषणा: सामाजिक न्याय पर एक प्रहार

सवर्ण आयोग की घोषणा

भारत की राजनीति में बिहार को सामाजिक न्याय की भूमि कहा जाता रहा है। यह वही राज्य है जहां मंडल आयोग की राजनीति ने सामाजिक समीकरणों को बदला, जहां पिछड़े, दलित और वंचित समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए राजनीतिक क्रांति हुई। परंतु हाल ही में बिहार सरकार द्वारा सवर्ण आयोग (या ‘सवर्ण कल्याण आयोग’) के गठन की घोषणा ने इस ऐतिहासिक सामाजिक न्याय की लड़ाई पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

आइए हम बिहार सरकार के इस निर्णय की पृष्ठभूमि, इसके राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ, और सामाजिक न्याय आंदोलन पर इसके प्रभाव की गहन समीक्षा करते हैं।

बिहार सरकार की घोषणा: क्या है सवर्ण आयोग?

2024 के अंत में या 2025 की शुरुआत में, बिहार सरकार ने यह घोषणा की कि राज्य में सवर्ण समुदायों के लिए एक विशेष आयोग गठित किया जाएगा। इस आयोग का उद्देश्य होगा:

  • सवर्ण समाज (मुख्यतः ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार) की आर्थिक व सामाजिक स्थिति का आकलन करना।
  • उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं की अनुशंसा करना।
  • सरकारी योजनाओं में ‘वंचित सवर्णों’ को शामिल करने की प्रक्रिया तैयार करना।

सरकार ने यह कदम यह कहते हुए उठाया कि “हर वर्ग के गरीबों की चिंता सरकार की जिम्मेदारी है, चाहे वह किसी भी जाति का हो।”

सामाजिक न्याय की भूमि पर ऐसा क्यों?

बिहार की राजनीति सामाजिक न्याय की विचारधारा से जुड़ी रही है:

  • जॉर्ज फर्नांडिस, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने OBC, EBC और दलित समाज को सशक्त करने में बड़ी भूमिका निभाई।
  • मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने वाला पहला राज्य रहा बिहार
  • जातिगत जनगणना को सफलतापूर्वक कराने वाला पहला राज्य भी बिहार ही बना जिसमें लालू यादव एवं उनके पुत्र व तात्कालीन उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का अहम योगदान रहा।

ऐसे में सवर्ण आयोग का गठन एक वैचारिक पलटी जैसा लगता है। यह उस सोच से भटकाव का संकेत देता है, जिसने ‘सत्ता में भागीदारी में आबादी के अनुपात’ के सिद्धांत को बढ़ावा दिया था।

सवर्ण आयोग: सामाजिक न्याय के विरुद्ध कैसे?

जातिगत उत्पीड़न की अनदेखी

सवर्ण आयोग का गठन इस आधार पर किया गया है कि कुछ सवर्ण गरीब हैं, लेकिन यह आर्थिक पिछड़ेपन और सामाजिक उत्पीड़न के बीच के अंतर को नजरअंदाज करता है। सामाजिक न्याय की अवधारणा केवल आर्थिक स्थिति पर आधारित नहीं है — यह ऐतिहासिक व सामाजिक भेदभाव की भरपाई है।

दलित-पिछड़े आंदोलन की अवहेलना

यह निर्णय उन संघर्षों को नजरअंदाज करता है जो बहुजन समाज ने दशकों तक सामाजिक मान्यता और अवसरों के लिए लड़े हैं। एक आयोग जो सवर्णों को “वंचित” कहता है, वह इस ऐतिहासिक सच्चाई को नकारता है।

नीति के नाम पर जातिगत वर्चस्व की वापसी

सवर्ण आयोग सवर्ण वर्चस्व की पुनर्स्थापना की राजनीतिक रणनीति है। यह “सबको बराबर देना” के भ्रम में वंचित वर्गों के लिए बने आरक्षण और योजनाओं को कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम है।

बिहार में सवर्ण आयोग की राजनीति

चुनावी समीकरणों की रणनीति

बिहार की राजनीति में अब EBC (अति पिछड़ा वर्ग) और सवर्णों को मिलाकर एक नया समीकरण गढ़ने की कोशिश की जा रही है।
सवर्ण आयोग का गठन इसी रणनीति का हिस्सा है — सवर्ण वोटबैंक को खुश करने का प्रयास।

जातिगत जनगणना के दबाव का जवाब

2023 में बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना जारी की थी, जिसमें OBC व EBC की संख्या 63% से अधिक पाई गई।
इस रिपोर्ट ने सामाजिक न्याय की मांगों को और अधिक मजबूत किया — जैसे कि आरक्षण 50% से बढ़ाकर आबादी के अनुपात के अनुसार किया जाए।

सवर्ण आयोग का गठन इस बढ़ते दबाव को संतुलित करने और सवर्ण वर्ग में असंतोष कम करने की चाल हो सकती है।

संभावित प्रभाव और आशंकाएँ

वंचित वर्गों के अधिकारों पर चोट

बिहार जैसे राज्य में जहाँ संसाधन सीमित हैं, यदि योजनाओं और नौकरियों में सवर्ण आयोग की संस्तुति के अनुसार विशेष कोटा या योजनाएँ लाई जाती हैं, तो यह सीधे-सीधे वंचित वर्गों के हिस्से को कम करेगा।

सामाजिक संघर्षों में विभाजन

जब सरकार कहती है कि “हर गरीब बराबर है”, तो वह जातिगत वंचना और सामाजिक उत्पीड़न की सच्चाई से मुँह मोड़ती है। इससे बहुजन समाज के भीतर भ्रम और संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

बहुजन राजनीति में विचारधारात्मक संकट

यदि वही सरकार जो सामाजिक न्याय की बात करती है, सवर्ण आयोग बनाती है, तो यह बहुजन राजनीति की वैचारिक गिरावट का संकेत है। यह बदलाव केवल नीतिगत नहीं, वैचारिक भी है।

सामाजिक संगठनों और दलों की प्रतिक्रिया

दलित-पिछड़ा संगठनों का विरोध
  • कई सामाजिक संगठनों ने इसे “संविधान विरोधी” और “मंडल आंदोलन के खिलाफ़” कदम कहा है।
  • बिहार के छात्र संगठनों, SC/ST संगठनों ने विरोध प्रदर्शन भी किए।
राजनीतिक दलों की चुप्पी

कुछ दल जो स्वयं को बहुजन हितैषी बताते हैं, इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि सवर्ण वोटबैंक खोने का डर है।
यह चुप्पी सामाजिक न्याय आंदोलन के भविष्य के लिए चिंता का विषय है।

वैकल्पिक उपाय: क्या किया जा सकता है?

सभी गरीबों के लिए कल्याण योजनाएँ, आरक्षण नहीं

सरकार गरीब सवर्णों के लिए स्कॉलरशिप, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि दे सकती है, लेकिन आरक्षण केवल सामाजिक वंचना के आधार पर ही मिलना चाहिए।

जातिगत जनगणना के अनुसार आरक्षण

जातिगत आंकड़ों के आधार पर सभी वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को आंक कर नीतियाँ बननी चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ के लिए सवर्ण आयोग जैसे कदम उठाए जाएँ।

सामाजिक न्याय आयोग की स्थापना

एक निष्पक्ष आयोग हो जो सभी वर्गों की सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन कर नीति निर्माण करे, न कि एकतरफा सवर्ण हितकारी संस्थान।

वैचारिक पतन की शुरुआत?

बिहार सरकार द्वारा सवर्ण आयोग का गठन न केवल एक नीति निर्णय है, यह सामाजिक न्याय की विचारधारा से विचलन है। यह उस राज्य में हो रहा है जिसने मंडल आंदोलन की अगुवाई की, जिसने जातिगत जनगणना कर देश को दिशा दी, और जिसने बहुजन राजनीति को ताक़त दी।

इस आयोग के माध्यम से एक ऐसा संदेश दिया जा रहा है कि जाति आधारित वंचना अब कोई मायने नहीं रखती, और यह कि सवर्ण भी वंचित हैं। यह विचार उन लाखों लोगों के संघर्ष, आत्महत्या, बहिष्कार और दमन की यादों का अपमान है जो सामाजिक न्याय के लिए लड़े।

बिहार को अपनी ऐतिहासिक भूमिका याद रखनी चाहिए — उसे सामाजिक न्याय की रक्षा करनी चाहिए, न कि उसे कमजोर करने वाले कदमों का साथ देना।



Leave a Comment

You cannot copy content of this page

Index