
यूं तो अगस्त का महीना को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इसी महीने के 15 तारीख को हमारा देश सैकड़ो साल के गुलामी की दास्तां से मुक्त हुए थे। आपको बता दें कि एक लंबी लड़ाई और संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए। अपने देश को गुलामी की दास्तां से मुक्त कराने के लिए हर तरह के लोगों ने, जिनके अंदर अपनी मातृभूमि के लिए प्रेम था, अपनी कुर्बानी दी। इस आजादी की लड़ाई में तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को दो भागों में देख सकते हैं। एक वह लोग जिन्होंने अपनी लड़ाई अहिंसा और बातचीत के जरिए आगे बढ़ाया। उदाहरण के लिए – महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू आदि। तो वहीं दूसरी तरफ वह लोग थे जिन्होंने अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए तथा अपनी मातृभूमि को गुलामी से मुक्त करने के लिए जरूरत पड़ने पर हिंसा का भी सहारा लिया। उदाहरण के लिए – चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, भगत सिंह आदि।
अपने देश को गुलामी की दास्तां से मुक्त कराने के लिए देश के सभी लोगों ने अपना योगदान दिया। जिन लोगों के अंदर अपनी मातृभूमि के लिए प्रेम था, उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान भी दिया। अंग्रेजों की दास्तां से मुक्त कराने के लिए हर वर्ग के लोगों ने अपना योगदान दिया। चाहे वह किसी भी धर्म के मानने वाले हो या किसी भी जाति में जन्म लिए हो। जिनके अंदर देशभक्ति की भावना भरी थी, उन्होंने अपने मुल्क को आजाद करने के लिए कुर्बान तक हो गए।
लेकिन इस देश का दुर्भाग्य कहिए या परंपरा! उन सभी शूरवीरों को इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिल पाया जिनका वह असली हकदार था। हम इतिहास में जब भी आजादी के आंदोलन के बारे में पढ़ते हैं तो उन्हीं गिने-चुने नामों के बारे में पढ़ पाते हैं। क्योंकि बाकी के बारे में ना तो सरकार ने पढ़ना जरूरी समझा और ना ही इतिहासकार ने इसका उल्लेख करना उचित समझा। अब इसका कारण भले ही सरकार या इतिहासकार कुछ और बताता हो!लेकिन जब आप इसके केंद्र में झांकिएगा तो आपको जातिवाद का भयानक दुर्गंध से सामना होगा।
इतिहास के पन्नों से उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों का नाम इसलिए गायब कर दिया गया या ज्यादा बताने की जरूरत नहीं समझा क्योंकि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि भारत के वर्चस्ववादी विचारधारा से मिल नहीं खाता था। आज के इस आर्टिकल में हम एक ऐसा ही क्रांतिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे इतिहास ने वह जगह नहीं दिया जिसका वह सचमुच में हकदार थे। हम बात कर रहे हैं शहीद उधम सिंह के बारे में।
शहीद उधम सिंह का खास मायने क्यों है
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जितने भी क्रांतिकारी थे उनमें उधम सिंह एक अलग पहचान रखते थे। वह अलग तरीके से इसलिए याद किए जाते हैं, क्योंकि आज से लगभग 105 साल पहले अमृतसर स्थित जलियांवाला बाग में जो घटना घटा था उसने भारत को एक ऐसा जख्म दिया जिसका दर्द आज भी रह रहकर टिंसे मारता है। ब्रिटिश सरकार के द्वारा लाए गए काले कानून रौलट एक्ट के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में शांतिपूर्वक तरीके से सभा हो रही थी। ब्रिटिश सरकार को जब इसके बारे में पता चला तो पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को सभा कर रहे सभी भारतीयों को सबक सिखाने का आदेश दिया।
अपनी आंखों से देखा था जलियांवाला बाग का मंजर

गवर्नर के आदेश अनुसार जनरल डायर ने सैकड़ो सैनिकों के साथ सभा स्थल जलियांवाला बाग पहुंच गए और बाग को चारों ओर से घेर लिया। इससे पहले लोग कुछ समझ पाते वहां मौजूद लोगों से कुछ कहे बिना निहत्थे, मासूम और निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। जिसमें हजारों लोग मारे गए। यहां एक बात समझिए! जिसने सैनिकों के साथ गोलियां चलाई उसका नाम जनरल रेजीनॉल्ड डायर था और जिसने आदेश दिया वह पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर थे। ये दोनों अलग-अलग थे। जनरल डायर ने खुद अपने एक संस्मरण में लिखा था कि 1650 राउंड गोलियां चलाने में 6 मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे। इस गोलीबारी में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 337 लोगों के ही करने की पुष्टि हुई थी, जबकि 1500 लोग घायल हुए थे। लेकिन कई लोगों का मानना था कि उसे नरसंहार में लगभग 2000 लोग मारे गए। अंग्रेजों की गोलियों से बचने के लिए कई लोग बाग में स्थित कुएं में कूद गए, जिसमें पुरुष के अलावा महिलाएं और बच्चे भी थे। 120 लोगों की लाश तो सिर्फ कुएं से ही मिले थे। आज भी यह कुआं संरक्षित है, इसे शहीदी कुआं के नाम से जाना जाता है। उस सभा में सिर्फ पुरुष ही शामिल नहीं थे, पुरुषों के अलावा महिलाएं और बच्चे भी भाग लिए थे।

उसी बच्चों में बालक उधम सिंह भी थे जो सभा में आए अन्य लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे। जब बाग में गोलीबारी होने लगी तो उधम सिंह भी वहां मौजूद था। अंग्रेजों के इस खूनी खेल को उन्होंने अपनी आंखों से देखा। उन्होंने उसी बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इसका बदला लेने की कसम खा ली।
उधम सिंह का प्रारंभिक जीवन
क्रांतिवीर उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उधम सिंह का जन्म कंबोज जाति में हुआ था, जो एक पिछड़ी जाति मानी जाती है। उधम सिंह जब 10 साल के हुए तब तक उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उधम सिंह अपने बड़े भाई मुक्ता सिंह के साथ अनाथालय में रहने लगे। इसी बीच उनके बड़े भाई की भी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और धीरे-धीरे वह क्रांतिकारियों के संपर्क में आकर आजादी की लड़ाई में रुचि लेने लगे। फिर एक दिन क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में पूर्ण रूप से शामिल हो गए। उधम सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि और जीवन का संघर्ष इतना बड़ा था कि ऐसी स्थिति में कोई इस तरह का फैसला लेने का सोच भी नहीं सकता। यही कारण है की तमाम क्रांतिकारियों के बीच उधम सिंह की पहचान एक अलग तरह की क्रांतिकारी के रूप में होता है। वह बाकियों से महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाते हैं, क्योंकि वह सिर्फ आर्थिक तंगी का ही सामना नहीं कर रहे थे बल्कि जाति का दंश भी उसको झेलना पड़ा। जातिगत रूप से समाज के निचले पायदान से ताल्लुक रखने के कारण उन्हें जातिवाद का पीड़ा सहना पड़ा। जातिवाद की मार से इतना तंग आ गए थे कि वो खुद को जाति और धर्म से मुक्त रखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था, जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक था।
अपना लक्ष्य नहीं भुला
इतना सब कुछ झेलने के बाद भी उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को नहीं भूला, जो जलियांवाला बाग में लिया था। वह इसे पूरा करने के लिए लगातार कोशिश करते रहे। इसी सिलसिले में सन 1934 में वह लंदन पहुंचे। उधम सिंह जिस मौके के इंतजार में था, वह मौका उन्हें जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद मिला।
आखिरकार बदला लेने का दिन आ गया
साल था 1940 और दिन था 13 मार्च! जब माइकल ओ डायर लंदन के काकस्टेन सभागार में एक सभा में सम्मिलित होने गया। उधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उसमें अपना रिवाल्वर छिपाकर हाल में प्रवेश कर गए। मोर्चा संभाल कर उन्होंने माइकल ओ डायर को निशाना बनाया और गोलियां दागनी शुरू कर दी। जिस प्रकार उन्होंने यहां किसी को संभालने का मौका नहीं दिया उसी प्रकार उधम सिंह ने वहां उसे भगाने तक का मौका नहीं दिया। माइकल ओ डायर वही ढेर हो गए।

ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला कर कुर्बान हो गए
माइकल ओ डायर की मौत के बाद लंदन सहित भारत में राज कर रहे ब्रिटिश हुकूमत दहल गई। उधम सिंह पकड़े गए और उनको फांसी की सजा दी गई। लेकिन फांसी की सजा से पहले जब उनका कोर्ट में लाया गया तो उधम सिंह ने कहा था – “मैंने ब्रिटिश राज्य के दौरान भारत में बच्चों को कुपोषण से मरते देखा है, साथ ही जलियांवाला बाग नरसंहार भी अपने आंखों से देखा है। अतः मुझे कोई दुख नहीं है। चाहे मुझे 10-20 साल की सजा दी जाए या फांसी पर लटका दिया जाए। जो मेरी प्रतिज्ञा थी वह पूरी हो चुकी है। अब मैं अपने वतन के लिए शहीद होने को तैयार हूं।”
फांसी की सजा सुनने के बाद उधम सिंह ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया। 31 जुलाई 1940 को ब्रिटेन के पेंटनविले जेल में भारत के वीर सपूत और सच्चे क्रांतिकारी उधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया।
परंतु अफसोस की बात यह है कि आजाद भारत की सरकारें उधम सिंह को आज तक वह सम्मान नहीं दे सकी जिनके वह हकदार थे। इसके पीछे चाहे जो भी कारण हो पर सबसे बड़ी कारण उनका जाति रहा। उधम सिंह जिस वर्ग से आते थे उस वर्ग का सामाजिक पृष्ठभूमि काफी पिछड़ रहा है। वर्तमान में पंजाब में कंबोज जाति ओबीसी समुदाय में आते हैं।
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