न्याय के मंदिरों में डॉ. अंबेडकर का प्रवेश: एक ऐतिहासिक निर्णय की गूंज

न्याय के मंदिरों में डॉ. अंबेडकर का प्रवेश

एक ऐसा ऐतिहासिक निर्णय जो भारत की न्यायपालिका के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा

अभी हाल ही में कर्नाटक हाईकोर्ट ने 26 अप्रैल 2025 का अपने पुराने प्रस्ताव के आधार पर एक साहसी और दूरगामी निर्णय लेते हुए यह आदेश जारी किया कि राज्य के समस्त अदालतों — बेंगलुरु, धारवाड़ और कलबुर्गी की पीठों सहित—और जिला न्यायालयों के सभी कोर्ट रूम में भारत रत्न, संविधान निर्माता, सामाजिक न्याय के योद्धा डॉ. भीमराव अंबेडकर का चित्र प्रमुख स्थान पर लगाया जाएगा।

यह सिर्फ एक चित्र लगाने का निर्णय नहीं है, यह न्याय की आत्मा को उसके वास्तविक प्रतीक से जोड़ने की ऐतिहासिक पहल है। कर्नाटक हाईकोर्ट का यह फैसला इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है कि उनका ये फैसला उस समय में आया है जब कि इसी देश के अंदर मध्यप्रदेश के ग्वालियर हाईकोर्ट में बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को लेकर भारी विरोध हो रहा है। ग्वालियर हाईकोर्ट के अंदर सवर्ण जाति के वकीलों ने बाबा साहब अंबेडकर के प्रतिमा को स्थापित करने को लेकर भारी विरोध कर रहा है क्योंकि उनका मानना है कि अदालत में किसी व्यक्ति की प्रतिमा स्थापित नहीं किया जाना चाहिए। ये वकीलों का वही जमात है जो ठीक से देश के कानून तक को नहीं पढ़ा है। मेरिट की बात तो छोड़ ही दीजिए। खैर इस मुद्दे पर फिर कभी बात करेंगे, अभी हमलोग कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसला पर बात करेंगे।
जहां एक ओर मध्य प्रदेश के ग्वालियर हाईकोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा लगाने को लेकर विरोध और विवाद की स्थिति बनी हुई है, वहीं दूसरी ओर कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक सराहनीय और ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए अपने अधीनस्थ सभी अदालतों में डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने का आदेश जारी किया है। यह स्थिति दो राज्यों की न्यायपालिका के दृष्टिकोण में गहरे अंतर को उजागर करती है – एक ओर संवैधानिक मूल्यों को स्वीकार करने की सकारात्मक पहल है, तो दूसरी ओर सामाजिक पूर्वग्रह और मानसिक संकीर्णता का विरोधाभासी प्रदर्शन।डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पकार हैं। वे केवल एक दलित नेता नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक, समतामूलक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे के आधारस्तंभ हैं। उनकी प्रतिमा अदालतों में लगाई जाना न केवल एक श्रद्धांजलि है, बल्कि संविधान और न्याय के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक भी है।

कर्नाटक हाईकोर्ट का यह निर्णय न्याय प्रणाली को अधिक समावेशी और जागरूक बनाने की दिशा में एक मजबूत संकेत देता है। यह कदम यह भी दर्शाता है कि संविधान निर्माताओं का सम्मान करना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि न्यायिक चेतना का हिस्सा होना चाहिए।

वहीं, ग्वालियर में हो रहा विरोध एक बड़ी विडंबना को सामने लाता है – कि संविधान की रक्षा का दायित्व जिन संस्थाओं पर है, वहीं कभी-कभी उसके सबसे बड़े प्रतीक का विरोध किया जाता है। यह घटना न केवल दलित समाज को आहत करती है, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना और सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ी रुकावट की तरह सामने आती है।

इस विरोध और समर्थन के बीच साफ है कि भारत को केवल संविधान के पन्नों पर नहीं, बल्कि जमीन पर भी अंबेडकर के विचारों को अपनाने की ज़रूरत है। अदालतें अगर संविधान की आत्मा को पहचानेंगी, तभी समाज में सच्चा न्याय और समानता संभव हो पाएगी।

कर्नाटक हाईकोर्ट का यह फैसला सिर्फ प्रतिमा स्थापित करना या नहीं करना से संबंधित नहीं है बल्कि यह उस व्यक्ति को न्याय के संस्थानों में स्थान देना है, जिसने हमें ये पूरी व्यवस्था रचकर दिए हैं।
आप कल्पना कीजिए, एक ऐसा देश जहां अदालत में हर दिन संविधान की दुहाई दी जाती है, लेकिन उसी संविधान को गढ़ने वाले व्यक्ति की तस्वीर तक नहीं दिखाई देती। यह कैसी विडंबना है कि भारतीय न्याय व्यवस्था—जिसकी नींव ही डॉ. अंबेडकर की वैचारिक ईंटों पर रखी गई—उसी व्यक्ति की उपेक्षा करती रही? इसे विडम्बना कहें या जातिवाद ये आप ही बताइए।
कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले ने यह बताने की कोशिश की है कि अब यह उपेक्षा नहीं चलेगी। हालांकि ये कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी। फिर भी इस फैसले ने थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई है। कर्नाटक हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल इस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारता है, बल्कि यह बहुजनों, वंचितों और आम जनता के हक में एक नैतिक और न्यायिक पुनर्स्थापना है।

डॉ. अंबेडकर कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे उस भारत की नींव रखने वाले पुरुष थे जो न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर खड़ा है। जब हम कोर्ट में “संविधान के अनुसार” फैसला सुनते हैं, तो वो संविधान किन हाथों से बना, यह याद रखना जरूरी है। डॉ. अंबेडकर ने न सिर्फ क़ानून बनाया, उन्होंने उसे मानवीय बनाया।

हालांकि मैं ये नहीं कह रहा हूं कि अदालत में डॉ अम्बेडकर की तस्वीर या प्रतिमा मात्र लगा देने से न्याय की मौलिकता पूरी हो जाएगी, उसके लिए तो अच्छी नीति के साथ साथ साफ नीयत भी होनी चाहिए जो आजकल अदालतों में बहुत ही कम देखा जाता है। लेकिन इस फैसले की सकारात्मक प्रभाव ये होता है कि, जब कोई दलित, पिछड़ा, वंचित व्यक्ति न्याय के लिए कोर्ट पहुंचता है, और वहां दीवार पर डॉ. अंबेडकर की तस्वीर देखता है—तो उसे यह अहसास होता है कि यह न्यायालय सिर्फ ऊँची जातियों का नहीं, बल्कि उसका भी है।

कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले का स्वागत सिर्फ बहुजन समाज ने ही नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति ने किया है जो संविधान में आस्था रखता है। हालांकि यह मांग कोई नई नहीं थी—सालों से वकील, सामाजिक संगठन, बहुजन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता यह मांग कर रहे थे कि कोर्ट रूम में डॉ. अंबेडकर की तस्वीर होनी चाहिए। अब जाकर न्यायपालिका ने इस मांग को गंभीरता से लिया।

रजिस्ट्रार जनरल के.एस. भरत कुमार द्वारा जारी सर्कुलर में स्पष्ट रूप से कहा गया कि सभी कोर्ट रूम में संविधान निर्माता की तस्वीर ‘प्रमुख और उपयुक्त स्थान’ पर लगाई जाएगी।

अब कई लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि क्या सिर्फ तस्वीर लगा देने से सब कुछ ठीक हो जाएगा?

जी नहीं! तस्वीर लगा देने से ही सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा। तस्वीर लगना एक ज़रूरी शुरुआत है। लेकिन असली उद्देश्य होना चाहिए—डॉ. अंबेडकर के विचारों का न्यायिक प्रक्रिया में आत्मसात किया जाना। उनका विचार था कि न्याय सबका हो, तुरंत हो, बिना भेदभाव के हो

आज भी हमारी न्यायपालिका में कई स्तरों पर जातिगत भेदभाव मौजूद है। अदालतों में बहुजन जजों की संख्या नगण्य है। बड़ी अदालतों में, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट में, सामाजिक विविधता का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। ऐसे में यह तस्वीर हमें हर दिन यह याद दिलाएगा, कि न्याय सिर्फ कागज़ पर नहीं बल्कि व्यवहार में होना चाहिए।

कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए हमारे देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इसे ‘राजनीति से प्रेरित’ बताने की कोशिश कर रहे हैं। वे कहते हैं—”कोर्ट को तटस्थ रहना चाहिए।”

मैं उनसे पूछना चाहता हूँ—क्या संविधान तटस्थ है? क्या वह हर नागरिक को समान अधिकार नहीं देता? यदि हां, तो फिर उसके निर्माता को न्याय के सर्वोच्च संस्थानों से दूर क्यों रखा गया? सच यह है कि यह निर्णय राजनीति नहीं, न्याय का वास्तविक पुनर्पाठ है। यह उन विचारों की पुनर्स्थापना है जिन्हें दबाया गया, छुपाया गया, और हाशिए पर रखा गया। अब समय आ गया है कि यह निर्णय पूरे भारत में लागू हो।

अगर संसद भवन में डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा लग सकती है, अगर हर सरकारी दफ्तर में उनकी तस्वीर लग सकती है, तो फिर न्यायालय—जहां संविधान की आत्मा जीवित रहती है—वहां यह तस्वीर सबसे पहले और सबसे प्रमुख स्थान पर होनी चाहिए। यह तस्वीर हमें केवल डॉ. अंबेडकर के संघर्ष की याद नहीं दिलाएगी, बल्कि यह उस ‘न्याय दर्शन’ की भी याद दिलाएगी, जो उन्होंने संविधान में प्रतिपादित किया।

हालांकि मैं एक बात यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि डॉ. अंबेडकर की तस्वीर हर न्यायालय में लगे, इसका मतलब यह नहीं कि हम उनके विचारों को संग्रहालय में बंद कर दें। बल्कि अब हमें उनकी शिक्षाओं को कोर्ट की कार्यवाही में, फैसलों की भाषा में, और नियुक्तियों की प्रक्रिया में शामिल करना होगा।

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि:

  • न्यायपालिका में सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन हो।
  • वंचित समुदायों को न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व मिले।
  • सबसे जरूरी, न्याय की भाषा जन-जन की भाषा बने।

कर्नाटक हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल एक प्रतीकात्मक कदम है, बल्कि यह उस दिशा में बढ़ाया गया साहसी कदम है, जहां डॉ. अंबेडकर के विचार भारतीय न्याय प्रणाली का अंग बन सकें। अब वक्त है कि हम सिर्फ दीवारों पर तस्वीरें न टांगें, बल्कि अपने दिल, दिमाग और व्यवस्था में डॉ. अंबेडकर को जगह दें। यही इस निर्णय की असली जीत होगी।


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